7 क्या इसका मतलब यह है कि शरीअत ख़ुद गुनाह है? हरगिज़ नहीं! बात तो यह है कि अगर शरीअत मुझ पर मेरे गुनाह ज़ाहिर न करती तो मुझे इनका कुछ पता न चलता। मसलन अगर शरीअत न बताती, “लालच न करना” तो मुझे दर-हक़ीक़त मालूम न होता कि लालच क्या है।
8 लेकिन गुनाह ने इस हुक्म से फ़ायदा उठाकर मुझमें हर तरह का लालच पैदा कर दिया। इसके बरअक्स जहाँ शरीअत नहीं होती वहाँ गुनाह मुरदा है और ऐसा काम नहीं कर पाता।
9 एक वक़्त था जब मैं शरीअत के बग़ैर ज़िंदगी गुज़ारता था। लेकिन ज्योंही हुक्म मेरे सामने आया तो गुनाह में जान आ गई
10 और मैं मर गया। इस तरह मालूम हुआ कि जिस हुक्म का मक़सद मेरी ज़िंदगी को क़ायम रखना था वही मेरी मौत का बाइस बन गया।
11 क्योंकि गुनाह ने हुक्म से फ़ायदा उठाकर मुझे बहकाया और हुक्म से ही मुझे मार डाला।
12 लेकिन शरीअत ख़ुद मुक़द्दस है और इसके अहकाम मुक़द्दस, रास्त और अच्छे हैं। 13 क्या इसका मतलब यह है कि जो अच्छा है वही मेरे लिए मौत का बाइस बन गया? हरगिज़ नहीं! गुनाह ही ने यह किया। इस अच्छी चीज़ को इस्तेमाल करके उसने मेरे लिए मौत पैदा कर दी ताकि गुनाह ज़ाहिर हो जाए। यों हुक्म के ज़रीए गुनाह की संजीदगी हद से ज़्यादा बढ़ जाती है।
14 हम जानते हैं कि शरीअत रूहानी है। लेकिन मेरी फ़ितरत इनसानी है, मुझे गुनाह की ग़ुलामी में बेचा गया है।
15 दर-हक़ीक़त मैं नहीं समझता कि क्या करता हूँ। क्योंकि मैं वह काम नहीं करता जो करना चाहता हूँ बल्कि वह जिससे मुझे नफ़रत है।
16 लेकिन अगर मैं वह करता हूँ जो नहीं करना चाहता तो ज़ाहिर है कि मैं मुत्तफ़िक़ हूँ कि शरीअत अच्छी है।
17 और अगर ऐसा है तो फिर मैं यह काम ख़ुद नहीं कर रहा बल्कि गुनाह जो मेरे अंदर सुकूनत करता है।
18 मुझे मालूम है कि मेरे अंदर यानी मेरी पुरानी फ़ितरत में कोई अच्छी चीज़ नहीं बसती। अगरचे मुझमें नेक काम करने का इरादा तो मौजूद है लेकिन मैं उसे अमली जामा नहीं पहना सकता।
19 जो नेक काम मैं करना चाहता हूँ वह नहीं करता बल्कि वह बुरा काम करता हूँ जो करना नहीं चाहता।
20 अब अगर मैं वह काम करता हूँ जो मैं नहीं करना चाहता तो इसका मतलब है कि मैं ख़ुद नहीं कर रहा बल्कि वह गुनाह जो मेरे अंदर बसता है।
21 चुनाँचे मुझे एक और तरह की शरीअत काम करती हुई नज़र आती है, और वह यह है कि जब मैं नेक काम करने का इरादा रखता हूँ तो बुराई आ मौजूद होती है। 22 हाँ, अपने बातिन में तो मैं ख़ुशी से अल्लाह की शरीअत को मानता हूँ। 23 लेकिन मुझे अपने आज़ा में एक और तरह की शरीअत दिखाई देती है, ऐसी शरीअत जो मेरी समझ की शरीअत के ख़िलाफ़ लड़कर मुझे गुनाह की शरीअत का क़ैदी बना देती है, उस शरीअत का जो मेरे आज़ा में मौजूद है। 24 हाय, मेरी हालत कितनी बुरी है! मुझे इस बदन से जिसका अंजाम मौत है कौन छुड़ाएगा? 25 ख़ुदा का शुक्र है जो हमारे ख़ुदावंद ईसा मसीह के वसीले से यह काम करता है।