2 अपनी जमात को याद कर जिसे तूने क़दीम ज़माने में ख़रीदा और एवज़ाना देकर छुड़ाया ताकि तेरी मीरास का क़बीला हो। कोहे-सिय्यून को याद कर जिस पर तू सुकूनतपज़ीर रहा है।
3 अपने क़दम इन दायमी खंडरात की तरफ़ बढ़ा। दुश्मन ने मक़दिस में सब कुछ तबाह कर दिया है।
4 तेरे मुख़ालिफ़ों ने गरजते हुए तेरी जलसागाह में अपने निशान गाड़ दिए हैं।
5 उन्होंने गुंजान जंगल में लकड़हारों की तरह अपने कुल्हाड़े चलाए,
6 अपने कुल्हाड़ों और कुदालों से उस की तमाम कंदाकारी को टुकड़े टुकड़े कर दिया है।
7 उन्होंने तेरे मक़दिस को भस्म कर दिया, फ़र्श तक तेरे नाम की सुकूनतगाह की बेहुरमती की है।
8 अपने दिल में वह बोले, “आओ, हम उन सबको ख़ाक में मिलाएँ!” उन्होंने मुल्क में अल्लाह की हर इबादतगाह नज़रे-आतिश कर दी है।
9 अब हम पर कोई इलाही निशान ज़ाहिर नहीं होता। न कोई नबी हमारे पास रह गया, न कोई और मौजूद है जो जानता हो कि ऐसे हालात कब तक रहेंगे।
10 ऐ अल्लाह, हरीफ़ कब तक लान-तान करेगा, दुश्मन कब तक तेरे नाम की तकफ़ीर करेगा?
11 तू अपना हाथ क्यों हटाता, अपना दहना हाथ दूर क्यों रखता है? उसे अपनी चादर से निकालकर उन्हें तबाह कर दे!
13 तू ही ने अपनी क़ुदरत से समुंदर को चीरकर पानी में अज़दहाओं के सरों को तोड़ डाला।
14 तू ही ने लिवियातान के सरों को चूर चूर करके उसे जंगली जानवरों को खिला दिया।
15 एक जगह तूने चश्मे और नदियाँ फूटने दीं, दूसरी जगह कभी न सूखनेवाले दरिया सूखने दिए।
16 दिन भी तेरा है, रात भी तेरी ही है। चाँद और सूरज तेरे ही हाथ से क़ायम हुए।
17 तू ही ने ज़मीन की हुदूद मुक़र्रर कीं, तू ही ने गरमियों और सर्दियों के मौसम बनाए।
19 अपने कबूतर की जान को वहशी जानवरों के हवाले न कर, हमेशा तक अपने मुसीबतज़दों की ज़िंदगी को न भूल।
20 अपने अहद का लिहाज़ कर, क्योंकि मुल्क के तारीक कोने ज़ुल्म के मैदानों से भर गए हैं।
21 होने न दे कि मज़लूमों को शरमिंदा होकर पीछे हटना पड़े बल्कि बख़्श दे कि मुसीबतज़दा और ग़रीब तेरे नाम पर फ़ख़र कर सकें।
22 ऐ अल्लाह, उठकर अदालत में अपने मामले का दिफ़ा कर। याद रहे कि अहमक़ दिन-भर तुझे लान-तान करता है।
23 अपने दुश्मनों के नारे न भूल बल्कि अपने मुख़ालिफ़ों का मुसलसल बढ़ता हुआ शोर-शराबा याद कर।
<- ज़बूर 73ज़बूर 75 ->