4 चुनाँचे यूसुफ़ गलील के शहर नासरत से रवाना होकर यहूदिया के शहर बैत-लहम पहुँचा। वजह यह थी कि वह दाऊद बादशाह के घराने और नसल से था, और बैत-लहम दाऊद का शहर था। 5 चुनाँचे वह अपने नाम को रजिस्टर में दर्ज करवाने के लिए वहाँ गया। उस की मंगेतर मरियम भी साथ थी। उस वक़्त वह उम्मीद से थी। 6 जब वह वहाँ ठहरे हुए थे तो बच्चे को जन्म देने का वक़्त आ पहुँचा। 7 बेटा पैदा हुआ। यह मरियम का पहला बच्चा था। उसने उसे कपड़ों [a] में लपेटकर एक चरनी में लिटा दिया, क्योंकि उन्हें सराय में रहने की जगह नहीं मिली थी।
13 अचानक आसमानी लशकरों के बेशुमार फ़रिश्ते उस फ़रिश्ते के साथ ज़ाहिर हुए जो अल्लाह की हम्दो-सना करके कह रहे थे,
14 “आसमान की बुलंदियों पर अल्लाह की इज़्ज़तो-जलाल, ज़मीन पर उन लोगों की सलामती जो उसे मंज़ूर हैं।”
15 फ़रिश्ते उन्हें छोड़कर आसमान पर वापस चले गए तो चरवाहे आपस में कहने लगे, “आओ, हम बैत-लहम जाकर यह बात देखें जो हुई है और जो रब ने हम पर ज़ाहिर की है।”
16 वह भागकर बैत-लहम पहुँचे। वहाँ उन्हें मरियम और यूसुफ़ मिले और साथ ही छोटा बच्चा जो चरनी में पड़ा हुआ था। 17 यह देखकर उन्होंने सब कुछ बयान किया जो उन्हें इस बच्चे के बारे में बताया गया था। 18 जिसने भी उनकी बात सुनी वह हैरतज़दा हुआ। 19 लेकिन मरियम को यह तमाम बातें याद रहीं और वह अपने दिल में उन पर ग़ौर करती रही।
20 फिर चरवाहे लौट गए और चलते चलते उन तमाम बातों के लिए अल्लाह की ताज़ीमो-तारीफ़ करते रहे जो उन्होंने सुनी और देखी थीं, क्योंकि सब कुछ वैसा ही पाया था जैसा फ़रिश्ते ने उन्हें बताया था।
25 उस वक़्त यरूशलम में एक आदमी बनाम शमौन रहता था। वह रास्तबाज़ और ख़ुदातरस था और इस इंतज़ार में था कि मसीह आकर इसराईल को सुकून बख़्शे। रूहुल-क़ुद्स उस पर था, 26 और उसने उस पर यह बात ज़ाहिर की थी कि वह जीते-जी रब के मसीह को देखेगा। 27 उस दिन रूहुल-क़ुद्स ने उसे तहरीक दी कि वह बैतुल-मुक़द्दस में जाए। चुनाँचे जब मरियम और यूसुफ़ बच्चे को रब की शरीअत के मुताबिक़ पेश करने के लिए बैतुल-मुक़द्दस में आए 28 तो शमौन मौजूद था। उसने बच्चे को अपने बाज़ुओं में लेकर अल्लाह की हम्दो-सना करते हुए कहा,
29 “ऐ आक़ा, अब तू अपने बंदे को इजाज़त देता है
30 क्योंकि मैंने अपनी आँखों से तेरी उस नजात का मुशाहदा कर लिया है
31 जो तूने तमाम क़ौमों की मौजूदगी में तैयार की है।
32 यह एक ऐसी रौशनी है जिससे ग़ैरयहूदियों की आँखें खुल जाएँगी
33 बच्चे के माँ-बाप अपने बेटे के बारे में इन अलफ़ाज़ पर हैरान हुए। 34 शमौन ने उन्हें बरकत दी और मरियम से कहा, “यह बच्चा मुक़र्रर हुआ है कि इसराईल के बहुत-से लोग इससे ठोकर खाकर गिर जाएँ, लेकिन बहुत-से इससे अपने पाँवों पर खड़े भी हो जाएंगे। गो यह अल्लाह की तरफ़ से एक इशारा है तो भी इसकी मुख़ालफ़त की जाएगी। 35 यों बहुतों के दिली ख़यालात ज़ाहिर हो जाएंगे। इस सिलसिले में तलवार तेरी जान में से भी गुज़र जाएगी।”
36 वहाँ बैतुल-मुक़द्दस में एक उम्ररसीदा नबिया भी थी जिसका नाम हन्नाह था। वह फ़नुएल की बेटी और आशर के क़बीले से थी। शादी के सात साल बाद उसका शौहर मर गया था। 37 अब वह बेवा की हैसियत से 84 साल की हो चुकी थी। वह कभी बैतुल-मुक़द्दस को नहीं छोड़ती थी, बल्कि दिन-रात अल्लाह को सिजदा करती, रोज़ा रखती और दुआ करती थी। 38 उस वक़्त वह मरियम और यूसुफ़ के पास आकर अल्लाह की तमजीद करने लगी। साथ साथ वह हर एक को जो इस इंतज़ार में था कि अल्लाह फ़िद्या देकर यरूशलम को छुड़ाए, बच्चे के बारे में बताती रही।
49 ईसा ने जवाब दिया, “आपको मुझे तलाश करने की क्या ज़रूरत थी? क्या आपको मालूम न था कि मुझे अपने बाप के घर में होना ज़रूर है?” 50 लेकिन वह उस की बात न समझे।
51 फिर वह उनके साथ रवाना होकर नासरत वापस आया और उनके ताबे रहा। लेकिन उस की माँ ने यह तमाम बातें अपने दिल में महफ़ूज़ रखें। 52 यों ईसा जवान हुआ। उस की समझ और हिकमत बढ़ती गई, और उसे अल्लाह और इनसान की मक़बूलियत हासिल थी।
<- लूक़ा 1लूक़ा 3 ->- a लफ़्ज़ी तरजुमा : पोतड़ों