17 ऐ इसराईली क़ौम, क्या यह तेरे ग़लत काम का नतीजा नहीं? क्योंकि तूने रब अपने ख़ुदा को उस वक़्त तर्क किया जब वह तेरी राहनुमाई कर रहा था। 18 अब मुझे बता कि मिसर को जाकर दरियाए-नील का पानी पीने का क्या फ़ायदा? मुल्के-असूर में जाकर दरियाए-फ़ुरात का पानी पीने से क्या हासिल? 19 तेरा ग़लत काम तुझे सज़ा दे रहा है, तेरी बेवफ़ा हरकतें ही तेरी सरज़निश कर रही हैं। चुनाँचे जान ले और ध्यान दे कि रब अपने ख़ुदा को छोड़कर उसका ख़ौफ़ न मानने का फल कितना बुरा और कड़वा है।” यह क़ादिरे-मुतलक़ रब्बुल-अफ़वाज का फ़रमान है।
20 “क्योंकि शुरू से ही तू अपने जुए और रस्सों को तोड़कर कहती रही, ‘मैं तेरी ख़िदमत नहीं करूँगी!’ तू हर बुलंदी पर और हर घने दरख़्त के साये में लेटकर इसमतफ़रोशी करती रही। 21 पहले तू अंगूर की मख़सूस और क़ाबिले-एतमाद नसल की पनीरी थी जिसे मैंने ख़ुद ज़मीन में लगाया। तो यह क्या हुआ कि तू बिगड़कर जंगली [a] बेल बन गई? 22 अब तेरे क़ुसूर का दाग़ उतर नहीं सकता, ख़ाह तू कितना खारी सोडा और साबुन क्यों न इस्तेमाल करे।” यह रब क़ादिरे-मुतलक़ का फ़रमान है।
23 “तू किस तरह यह कहने की जुर्रत कर सकती है कि मैंने अपने आपको आलूदा नहीं किया, मैं बाल देवताओं के पीछे नहीं गई। वादी में अपनी हरकतों पर तो ग़ौर कर! जान ले कि तुझसे क्या कुछ सरज़द हुआ है। तू बेमक़सद इधर-उधर भागनेवाली ऊँटनी है। 24 बल्कि तू रेगिस्तान में रहने की आदी गधी ही है जो शहवत के मारे हाँपती है। मस्ती के इस आलम में कौन उस पर क़ाबू पा सकता है? जो भी उससे मिलना चाहे उसे ज़्यादा जिद्दो-जहद की ज़रूरत नहीं, क्योंकि मस्ती के मौसम में वह हर एक के लिए हाज़िर है। 25 ऐ इसराईल, इतना न दौड़ कि तेरे जूते घिसकर फट जाएँ और तेरा गला ख़ुश्क हो जाए। लेकिन अफ़सोस, तू बज़िद है, ‘नहीं, मुझे छोड़ दे! मैं अजनबी माबूदों को प्यार करती हूँ, और लाज़िम है कि मैं उनके पीछे भागती जाऊँ।’
26 सुनो! इसराईली क़ौम के तमाम अफ़राद उनके बादशाहों, अफ़सरों, इमामों और नबियों समेत शरमिंदा हो जाएंगे। वह पकड़े हुए चोर की-सी शर्म महसूस करेंगे। 27 यह लोग लकड़ी के बुत से कहते हैं, ‘तू मेरा बाप है’ और पत्थर के देवता से, ‘तूने मुझे जन्म दिया।’ लेकिन गो यह मेरी तरफ़ रुजू नहीं करते बल्कि अपना मुँह मुझसे फेरकर चलते हैं तो भी ज्योंही कोई आफ़त उन पर आ जाए तो यह मुझसे इल्तिजा करने लगते हैं कि आकर हमें बचा! 28 अब यह बुत कहाँ हैं जो तूने अपने लिए बनाए? वही खड़े होकर दिखाएँ कि तुझे मुसीबत से बचा सकते हैं। ऐ यहूदाह, आख़िर जितने तेरे शहर हैं उतने तेरे देवता भी हैं।” 29 रब फ़रमाता है, “तुम मुझ पर क्यों इलज़ाम लगाते हो? तुम तो सब मुझसे बेवफ़ा हो गए हो। 30 मैंने तुम्हारे बच्चों को सज़ा दी, लेकिन बेफ़ायदा। वह मेरी तरबियत क़बूल नहीं करते। बल्कि तुमने फाड़नेवाले शेरबबर की तरह अपने नबियों पर टूटकर उन्हें तलवार से क़त्ल किया।
31 ऐ मौजूदा नसल, रब के कलाम पर ध्यान दो! क्या मैं इसराईल के लिए रेगिस्तान या तारीकतरीन इलाक़े की मानिंद था? मेरी क़ौम क्यों कहती है, ‘अब हम आज़ादी से इधर-उधर फिर सकते हैं, आइंदा हम तेरे हुज़ूर नहीं आएँगे?’ 32 क्या कुँवारी कभी अपने ज़ेवरात को भूल सकती है, या दुलहन अपना उरूसी लिबास? हरगिज़ नहीं! लेकिन मेरी क़ौम बेशुमार दिनों से मुझे भूल गई है।
33 तू इश्क़ ढूँडने में कितनी माहिर है! बदकार औरतें भी तुझसे बहुत कुछ सीख लेती हैं। 34 तेरे लिबास का दामन बेगुनाह ग़रीबों के ख़ून से आलूदा है, गो तूने उन्हें नक़बज़नी जैसा ग़लत काम करते वक़्त न पकड़ा। इस सब कुछ के बावुजूद भी 35 तू बज़िद है कि मैं बेक़ुसूर हूँ, अल्लाह का मुझ पर ग़ुस्सा ठंडा हो गया है। लेकिन मैं तेरी अदालत करूँगा, इसलिए कि तू कहती है, ‘मुझसे गुनाह सरज़द नहीं हुआ।’
36 तू कभी इधर, कभी इधर जाकर इतनी आसानी से अपना रुख़ क्यों बदलती है? यक़ीन कर कि जिस तरह तू अपने इत्तहादी असूर से मायूस होकर शरमिंदा हुई है उसी तरह तू नए इत्तहादी मिसर से भी नादिम हो जाएगी। 37 तू उस जगह से भी अपने हाथों को सर पर रखकर निकलेगी। क्योंकि रब ने उन्हें रद्द किया है जिन पर तू भरोसा रखती है। उनसे तुझे मदद हासिल नहीं होगी।”
<- यरमियाह 1यरमियाह 3 ->- a लफ़्ज़ी तरजुमा : अजनबी।