4 ग़ौर करें कि वह कितना अज़ीम था। हमारे बापदादा इब्राहीम ने उसे लूटे हुए माल का दसवाँ हिस्सा दे दिया। 5 अब शरीअत तलब करती है कि लावी की वह औलाद जो इमाम बन जाती है क़ौम यानी अपने भाइयों से पैदावार का दसवाँ हिस्सा ले, हालाँकि उनके भाई इब्राहीम की औलाद हैं। 6 लेकिन मलिके-सिद्क़ लावी की औलाद में से नहीं था। तो भी उसने इब्राहीम से दसवाँ हिस्सा लेकर उसे बरकत दी जिससे अल्लाह ने वादा किया था। 7 इसमें कोई शक नहीं कि कमहैसियत शख़्स को उससे बरकत मिलती है जो ज़्यादा हैसियत का हो। 8 जहाँ लावी इमामों का ताल्लुक़ है फ़ानी इनसान दसवाँ हिस्सा लेते हैं। लेकिन मलिके-सिद्क़ के मामले में यह हिस्सा उसको मिला जिसके बारे में गवाही दी गई है कि वह ज़िंदा रहता है। 9 यह भी कहा जा सकता है कि जब इब्राहीम ने माल का दसवाँ हिस्सा दे दिया तो लावी ने उसके ज़रीए भी यह हिस्सा दिया, हालाँकि वह ख़ुद दसवाँ हिस्सा लेता है। 10 क्योंकि गो लावी उस वक़्त पैदा नहीं हुआ था तो भी वह एक तरह से इब्राहीम के जिस्म में मौजूद था जब मलिके-सिद्क़ उससे मिला।
11 अगर लावी की कहानत (जिस पर शरीअत मबनी थी) कामिलियत पैदा कर सकती तो फिर एक और क़िस्म के इमाम की क्या ज़रूरत होती, उस की जो हारून जैसा न हो बल्कि मलिके-सिद्क़ जैसा? 12 क्योंकि जब भी कहानत बदल जाती है तो लाज़िम है कि शरीअत में भी तबदीली आए। 13 और हमारा ख़ुदावंद जिसके बारे में यह बयान किया गया है वह एक फ़रक़ क़बीले का फ़रद था। उसके क़बीले के किसी भी फ़रद ने इमाम की ख़िदमत अदा नहीं की। 14 क्योंकि साफ़ मालूम है कि ख़ुदावंद मसीह यहूदाह क़बीले का फ़रद था, और मूसा ने इस क़बीले को इमामों की ख़िदमत में शामिल न किया।
18 यों पुराने हुक्म को मनसूख़ कर दिया जाता है, क्योंकि वह कमज़ोर और बेकार था 19 (मूसा की शरीअत तो किसी चीज़ को कामिल नहीं बना सकती थी) और अब एक बेहतर उम्मीद मुहैया की गई है जिससे हम अल्लाह के क़रीब आ जाते हैं।
20 और यह नया निज़ाम अल्लाह की क़सम से क़ायम हुआ। ऐसी कोई क़सम न खाई गई जब दूसरे इमाम बने। 21 लेकिन ईसा एक क़सम के ज़रीए इमाम बन गया जब अल्लाह ने फ़रमाया,
22 इस क़सम की वजह से ईसा एक बेहतर अहद की ज़मानत देता है।
23 एक और फ़रक़, पुराने निज़ाम में बहुत-से इमाम थे, क्योंकि मौत ने हर एक की ख़िदमत महदूद किए रखी। 24 लेकिन चूँकि ईसा अबद तक ज़िंदा है इसलिए उस की कहानत कभी भी ख़त्म नहीं होगी। 25 यों वह उन्हें अबदी नजात दे सकता है जो उसके वसीले से अल्लाह के पास आते हैं, क्योंकि वह अबद तक ज़िंदा है और उनकी शफ़ाअत करता रहता है।
26 हमें ऐसे ही इमामे-आज़म की ज़रूरत थी। हाँ, ऐसा इमाम जो मुक़द्दस, बेक़ुसूर, बेदाग़, गुनाहगारों से अलग और आसमानों से बुलंद हुआ है। 27 उसे दूसरे इमामों की तरह इसकी ज़रूरत नहीं कि हर रोज़ क़ुरबानियाँ पेश करे, पहले अपने लिए फिर क़ौम के लिए। बल्कि उसने अपने आपको पेश करके अपनी इस क़ुरबानी से उनके गुनाहों को एक बार सदा के लिए मिटा दिया। 28 मूसवी शरीअत ऐसे लोगों को इमामे-आज़म मुक़र्रर करती है जो कमज़ोर हैं। लेकिन शरीअत के बाद अल्लाह की क़सम फ़रज़ंद को इमामे-आज़म मुक़र्रर करती है, और यह फ़रज़ंद अबद तक कामिल है।
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