5 फिर एसौ ने औरतों और बच्चों को देखा। उसने पूछा, “तुम्हारे साथ यह लोग कौन हैं?” याक़ूब ने कहा, “यह आपके ख़ादिम के बच्चे हैं जो अल्लाह ने अपने करम से नवाज़े हैं।”
6 दोनों लौंडियाँ अपने बच्चों समेत आकर उसके सामने झुक गईं। 7 फिर लियाह अपने बच्चों के साथ आई और आख़िर में यूसुफ़ और राख़िल आकर झुक गए।
8 एसौ ने पूछा, “जिस जानवरों के बड़े ग़ोल से मेरी मुलाक़ात हुई उससे क्या मुराद है?” याक़ूब ने जवाब दिया, “यह तोह्फ़ा है ताकि आपका ख़ादिम आपकी नज़र में मक़बूल हो।” 9 लेकिन एसौ ने कहा, “मेरे भाई, मेरे पास बहुत कुछ है। यह अपने पास ही रखो।” 10 याक़ूब ने कहा, “नहीं जी, अगर मुझ पर आपके करम की नज़र है तो मेरे इस तोह्फ़े को ज़रूर क़बूल फ़रमाएँ। क्योंकि जब मैंने आपका चेहरा देखा तो वह मेरे लिए अल्लाह के चेहरे की मानिंद था, आपने मेरे साथ इस क़दर अच्छा सुलूक किया है। 11 मेहरबानी करके यह तोह्फ़ा क़बूल करें जो मैं आपके लिए लाया हूँ। क्योंकि अल्लाह ने मुझ पर अपने करम का इज़हार किया है, और मेरे पास बहुत कुछ है।”
16 उस दिन एसौ सईर के लिए और 17 याक़ूब सुक्कात के लिए रवाना हुआ। वहाँ उसने अपने लिए मकान बना लिया और अपने मवेशियों के लिए झोंपड़ियाँ। इसलिए उस मक़ाम का नाम सुक्कात यानी झोंपड़ियाँ पड़ गया।
18 फिर याक़ूब चलते चलते सलामती से सिकम शहर पहुँचा। यों उसका मसोपुतामिया से मुल्के-कनान तक का सफ़र इख़्तिताम तक पहुँच गया। उसने अपने ख़ैमे शहर के सामने लगाए। 19 उसके ख़ैमे हमोर की औलाद की ज़मीन पर लगे थे। उसने यह ज़मीन चाँदी के 100 सिक्कों के बदले ख़रीद ली। 20 वहाँ उसने क़ुरबानगाह बनाई जिसका नाम उसने ‘एल ख़ुदाए-इसराईल’ रखा।
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