39
1 मैंने कहा “मैं अपनी राह की निगरानी करूँगा,
ताकि मेरी ज़बान से ख़ता न हो;
जब तक शरीर मेरे सामने है,
मैं अपने मुँह को लगाम दिए रहूँगा।”
2 मैं गूंगा बनकर ख़ामोश रहा,
और नेकी की तरफ़ से भी ख़ामोशी इख़्तियार की;
और मेरा ग़म बढ़ गया।
3 मेरा दिल अन्दर ही अन्दर जल रहा था।
सोचते सोचते आग भड़क उठी,
तब मैं अपनी ज़बान से कहने लगा,
4 “ऐ ख़ुदावन्द! ऐसा कर कि मैं अपने अंजाम से वाकिफ़ हो जाऊँ,
और इससे भी कि मेरी उम्र की मी'आद क्या है;
मैं जान लूँ कि कैसा फ़ानी हूँ!
5 देख, तूने मेरी उम्र बालिश्त भर की रख्खी है,
और मेरी ज़िन्दगी तेरे सामने बे हक़ीक़त है।
यक़ीनन हर इंसान बेहतरीन हालत में भी बिल्कुल बेसबात है सिलाह
6 दर हक़ीकत इंसान साये की तरह चलता फिरता है;
यक़ीनन वह फ़जूल घबराते हैं;
वह ज़ख़ीरा करता है और यह नहीं जानता के उसे कौन लेगा!
7 “ऐ ख़ुदावन्द! अब मैं किस बात के लिए ठहरा हूँ?
मेरी उम्मीद तुझ ही से है।
8 मुझ को मेरी सब ख़ताओं से रिहाई दे।
बेवक़ूफ़ों को मुझ पर अंगुली न उठाने दे।
9 मैं गूंगा बना,
मैंने मुँह न खोला क्यूँकि तू ही ने यह किया है।
10 मुझ से अपनी बला दूर कर दे;
मैं तो तेरे हाथ की मार से फ़ना हुआ जाता हूँ।
11 जब तू इंसान को बदी पर मलामत करके तम्बीह करता है;
तो उसके हुस्न को पतंगे की तरह फ़ना कर देता है;
यक़ीनन हर इंसान बेसबात है। सिलाह
12 “ऐ ख़ुदावन्द! मेरी दुआ सुन और मेरी फ़रियाद पर कान लगा;
मेरे आँसुओं को देखकर ख़ामोश न रह!
क्यूँकि मैं तेरे सामने परदेसी और मुसाफ़िर हूँ,
जैसे मेरे सब बाप — दादा थे।
13 आह! मुझ से नज़र हटा ले ताकि ताज़ा दम हो जाऊँ,