14 फिर ईसा पाक रूह की क़ुव्वत से भरा हुआ गलील को लौटा और आसपास में उसकी शोहरत फैल गई। 15 और वो उनके 'इबादतख़ानों में ता'लीम देता रहा और सब उसकी बड़ाई करते रहे।
16 और वो नासरत में आया जहाँ उसने परवरिश पाई थी और अपने दस्तूर के मुवाफ़िक़ सबत के दिन 'इबादतख़ाने में गया और पढ़ने को खड़ा हुआ। 17 और यसायाह नबी की किताब उसको दी गई, और किताब खोलकर उसने वो वर्क़ा खोला जहाँ ये लिखा था:
20 फिर वो किताब बन्द करके और ख़ादिम को वापस देकर बैठ गया; जितने 'इबादतख़ाने में थे सबकी आँखें उस पर लगी थीं। 21 वो उनसे कहने लगा, “आज ये लिखा हुआ तुम्हारे सामने पूरा हुआ।” 22 और सबने उस पर गवाही दी और उन पुर फ़ज़ल बातों पर जो उसके मुँह से निकली थी, ता'ज्जुब करके कहने लगे, “क्या ये यूसुफ़ का बेटा नहीं?” 23 उसने उनसे कहा “तुम अलबत्ता ये मिसाल मुझ पर कहोगे कि, 'ऐ हकीम, अपने आप को तो अच्छा कर! जो कुछ हम ने सुना है कि कफ़रनहूम में किया गया, यहाँ अपने वतन में भी कर'।” 24 और उसने कहा, “मैं तुम से सच कहता हूँ, कि कोई नबी अपने वतन में मक़बूल नहीं होता। 25 और मैं तुम से कहता हूँ, कि एलियाह के दिनों में जब साढ़े तीन बरस आसमान बन्द रहा, यहाँ तक कि सारे मुल्क में सख़्त काल पड़ा, बहुत सी बेवाएँ इस्राईल में थीं। 26 लेकिन एलियाह उनमें से किसी के पास न भेजा गया, मगर मुल्क — ए — सैदा के शहर सारपत में एक बेवा के पास 27 और इलिशा नबी के वक़्त में इस्राईल के बीच बहुत से कौढ़ी थे, लेकिन उनमें से कोई पाक साफ़ न किया गया मगर ना'मान सूरयानी।” 28 जितने 'इबादतख़ाने में थे, इन बातों को सुनते ही ग़ुस्से से भर गए, 29 और उठकर उस को बाहर निकाले और उस पहाड़ की चोटी पर ले गए जिस पर उनका शहर आबाद था, ताकि उसको सिर के बल गिरा दें। 30 मगर वो उनके बीच में से निकलकर चला गया।
31 फिर वो गलील के शहर कफ़रनहूम को गया और सबत के दिन उन्हें ता'लीम दे रहा था। 32 और लोग उसकी ता'लीम से हैरान थे क्यूँकि उसका कलाम इख़्तियार के साथ था। 33 इबादतख़ाने में एक आदमी था, जिसमें बदरूह थी। वो बड़ी आवाज़ से चिल्ला उठा कि, 34 “ऐ ईसा नासरी हमें तुझ से क्या काम? क्या तू हमें हलाक करने आया है? मैं तुझे जानता हूँ कि तू कौन है — ख़ुदा का क़ुद्दूस है।” 35 ईसा ने उसे झिड़क कर कहा, “चुप रह और उसमें से निकल जा।” इस पर बदरूह उसे बीच में पटक कर बग़ैर नुक़्सान पहूँचाए उसमें से निकल गई। 36 और सब हैरान होकर आपस में कहने लगे, “ये कैसा कलाम है? क्यूँकि वो इख़्तियार और क़ुदरत से नापाक रूहों को हुक्म देता है और वो निकल जाती हैं।” 37 और आस पास में हर जगह उसकी धूम मच गई।
38 फिर वो 'इबादतख़ाने से उठकर शमौन के घर में दाख़िल हुआ और शमौन की सास जो बुख़ार में पड़ी हुई थी और उन्होंने उस के लिए उससे 'अर्ज़ की। 39 वो खड़ा होकर उसकी तरफ़ झुका और बुख़ार को झिड़का तो वो उतर गया, वो उसी दम उठकर उनकी ख़िदमत करने लगी। 40 और सूरज के डूबते वक़्त वो सब लोग जिनके यहाँ तरह — तरह की बीमारियों के मरीज़ थे, उन्हें उसके पास लाए और उसने उनमें से हर एक पर हाथ रख कर उन्हें अच्छा किया। 41 और बदरूहें भी चिल्लाकर और ये कहकर कि, “तू ख़ुदा का बेटा है” बहुतों में से निकल गई, और वो उन्हें झिड़कता और बोलने न देता था, क्यूँकि वो जानती थीं के ये मसीह है।
42 जब दिन हुआ तो वो निकल कर एक वीरान जगह में गया, और भीड़ की भीड़ उसको ढूँडती हुई उसके पास आई, और उसको रोकने लगी कि हमारे पास से न जा। 43 उसने उनसे कहा, “मुझे और शहरों में भी ख़ुदा की बादशाही की ख़ुशख़बरी सुनाना ज़रूर है, क्यूँकि मैं इसी लिए भेजा गया हूँ।” 44 और वो गलील के 'इबाद्तखानों में एलान करता रहा।
<- लूका 3लूका 5 ->