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अय्यूब का दुसरा बयान: इलिफ़ज़ को जवाब
1 तब अय्यूब ने जवाब दिया
2 काश कि मेरा कुढ़ना तोला जाता,
और मेरी सारी मुसीबत तराजू़ में रख्खी जाती!
3 तो वह समन्दर की रेत से भी भारी होती;
इसी लिए मेरी बातें घबराहट की हैं।
4 क्यूँकि क़ादिर — ए — मुतलक़ के तीर मेरे अन्दर लगे हुए हैं;
मेरी रूह उन ही के ज़हर को पी रही हैं'
ख़ुदा की डरावनी बातें मेरे ख़िलाफ़ सफ़ बाँधे हुए हैं।
5 क्या जंगली गधा उस वक़्त भी चिल्लाता है जब उसे घास मिल जाती है?
या क्या बैल चारा पाकर डकारता है?
6 क्या फीकी चीज़ बे नमक खायी जा सकता है?
या क्या अंडे की सफ़ेदी में कोई मज़ा है?
7 मेरी रूह को उनके छूने से भी इंकार है,
वह मेरे लिए मकरूह गिज़ा हैं।
8 काश कि मेरी दरख़्वास्त मंज़ूर होती,
और ख़ुदा मुझे वह चीज़ बख़्शता जिसकी मुझे आरजू़ है।
9 या'नी ख़ुदा को यही मंज़ूर होता कि मुझे कुचल डाले,
और अपना हाथ चलाकर मुझे काट डाले।
10 तो मुझे तसल्ली होती,
बल्कि मैं उस अटल दर्द में भी शादमान रहता;
क्यूँकि मैंने उस पाक बातों का इन्कार नहीं किया।
11 मेरी ताक़त ही क्या है जो मैं ठहरा रहूँ?
और मेरा अन्जाम ही क्या है जो मैं सब्र करूँ?
12 क्या मेरी ताक़त पत्थरों की ताक़त है?
या मेरा जिस्म पीतल का है?
13 क्या बात यही नहीं कि मैं लाचार हूँ,
और काम करने की ताक़त मुझ से जाती रही है?
14 उस पर जो कमज़ोर होने को है उसके दोस्त की तरफ़ से मेहरबानी होनी चाहिए,
बल्कि उस पर भी जो क़ादिर — ए — मुतलक़ का ख़ौफ़ छोड़ देता है।
15 मेरे भाइयों ने नाले की तरह दग़ा की,
उन वादियों के नालों की तरह जो सूख जाते हैं।
16 जो जड़ की वजह से काले हैं,
और जिनमें बर्फ़ छिपी है।
17 जिस वक़्त वह गर्म होते हैं तो ग़ायब हो जाते हैं,
और जब गर्मी पड़ती है तो अपनी
जगह से उड़ जाते हैं।
18 क़ाफ़िले अपने रास्ते से मुड़ जाते हैं,
और वीराने में जाकर हलाक हो जाते हैं।
19 तेमा के क़ाफ़िले देखते रहे,
सबा के कारवाँ उनके इन्तिज़ार में रहे।
20 वह शर्मिन्दा हुए क्यूँकि उन्होंने उम्मीद की थी,
वह वहाँ आए और पशेमान हुए।
21 इसलिए तुम्हारी भी कोई हक़ीक़त नहीं;
तुम डरावनी चीज़ देख कर डर जाते हो।
22 क्या मैंने कहा, 'कुछ मुझे दो?
'या 'अपने माल में से मेरे लिए रिश्वत दो?'
23 या 'मुख़ालिफ़ के हाथ से मुझे बचाओ?
' या' ज़ालिमों के हाथ से मुझे छुड़ाओ?'
24 मुझे समझाओ और मैं ख़ामोश रहूँगा,
और मुझे समझाओ कि मैं किस बात में चूका।
25 रास्ती की बातों में कितना असर होता है,
बल्कि तुम्हारी बहस से क्या फ़ायदा होता है।
26 क्या तुम इस ख़्याल में हो कि लफ़्ज़ों की तक़रार' करो?
इसलिए कि मायूस की बातें हवा की तरह होती हैं।
27 हाँ, तुम तो यतीमों पर कुर'आ डालने वाले,
और अपने दोस्त को तिजारत का माल बनाने वाले हो।
28 इसलिए ज़रा मेरी तरफ़ निगाह करो,
क्यूँकि तुम्हारे मुँह पर मैं हरगिज़ झूट न बोलूँगा।
29 मैं तुम्हारी मिन्नत करता हूँ बाज़ आओ बे इन्साफ़ी न करो।
मैं हक़ पर हूँ।
30 क्या मेरी ज़बान पर बे इन्साफ़ी है?