5 पर यदि हमारा अधर्म परमेश्वर की धार्मिकता ठहरा देता है, तो हम क्या कहें? क्या यह कि परमेश्वर जो क्रोध करता है अन्यायी है? (यह तो मैं मनुष्य की रीति पर कहता हूँ)। 6 कदापि नहीं! नहीं तो परमेश्वर कैसे जगत का न्याय करेगा? 7 यदि मेरे झूठ के कारण परमेश्वर की सच्चाई उसकी महिमा के लिये अधिक करके प्रगट हुई, तो फिर क्यों पापी के समान मैं दण्ड के योग्य ठहराया जाता हूँ? 8 “हम क्यों बुराई न करें कि भलाई निकले*हम क्यों बुराई न करें कि भलाई निकले: जबकि बुराई, परमेश्वर की महिमा को बढ़ावा देने के लिए हैं जितना सम्भव है हम उतना करें।?” जैसा हम पर यही दोष लगाया भी जाता है, और कुछ कहते हैं कि इनका यही कहना है। परन्तु ऐसों का दोषी ठहराना ठीक है।
19 हम जानते हैं, कि व्यवस्था जो कुछ कहती है उन्हीं से कहती है, जो व्यवस्था के अधीन हैं इसलिए कि हर एक मुँह बन्द किया जाए, और सारा संसार परमेश्वर के दण्ड के योग्य ठहरे। 20 क्योंकि व्यवस्था के कामों†व्यवस्था के कामों: कामों के द्वारा या इस तरह के काम जो व्यवस्था की माँग है। से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिए कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहचान होती है। (भज. 143:2)
27 तो घमण्ड करना कहाँ रहा? उसकी तो जगह ही नहीं। कौन सी व्यवस्था के कारण से? क्या कर्मों की व्यवस्था से? नहीं, वरन् विश्वास की व्यवस्था के कारण। 28 इसलिए हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं, कि मनुष्य व्यवस्था के कामों के बिना विश्वास के द्वारा धर्मी ठहरता है। 29 क्या परमेश्वर केवल यहूदियों का है? क्या अन्यजातियों का नहीं? हाँ, अन्यजातियों का भी है। 30 क्योंकि एक ही परमेश्वर है, जो खतनावालों को विश्वास से और खतनारहितों को भी विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराएगा। 31 तो क्या हम व्यवस्था को विश्वास के द्वारा व्यर्थ ठहराते हैं§तो क्या हम व्यवस्था को विश्वास के द्वारा व्यर्थ ठहराते हैं: तो क्या हम इसे व्यर्थ और बेकार समझते है; क्या हम इसके नैतिक दायित्व को नष्ट करते हैं।? कदापि नहीं! वरन् व्यवस्था को स्थिर करते हैं।
<- रोमियों 2रोमियों 4 ->- a हम क्यों बुराई न करें कि भलाई निकले: जबकि बुराई, परमेश्वर की महिमा को बढ़ावा देने के लिए हैं जितना सम्भव है हम उतना करें।
- b व्यवस्था के कामों: कामों के द्वारा या इस तरह के काम जो व्यवस्था की माँग है।
- c परमेश्वर की महिमा: परमेश्वर की स्तुति या प्रशंसा।
- d तो क्या हम व्यवस्था को विश्वास के द्वारा व्यर्थ ठहराते हैं: तो क्या हम इसे व्यर्थ और बेकार समझते है; क्या हम इसके नैतिक दायित्व को नष्ट करते हैं।